Satkartavya

सत्कर्तव्य
- रामनरेश त्रिपाठी (Ramnaresh Tripathi)

जग में सचर-अचर जितने हैं, सारे कर्म निरत हैं।
धुन है एक-न-एक सभी को, सबके निश्चित व्रत हैं।
जीवनभर आतप सह वसुधा पर छाया करता है।
तुच्छ पत्र की भी स्वकर्म में कैसी तत्परता है।।

रवि जग में शोभा सरसाता, सोम सुधा बरसाता।
सब हैं लगे कर्म में, कोई निष्क्रिय दृष्टि न आता।
है उद्देश्य नितांत तुच्छ तृण के भी लघु जीवन का।
उसी पूर्ति में वह करता है अंत कर्ममय तन का।।

तुम मनुष्य हो, अमित बुद्धि-बल-बिलसित जन्म तुम्हारा।
क्या उद्देश्य रहित हो जग में, तुमने कभी विचारा?
बुरा न मानो, एक बार सोचो तुम अपने मन में।
क्या कर्तव्य समाप्त कर लिया तुमने निज जीवन में?

केवल अपने लिए सोचते, मौज भरे गाते हो।
पीते, खाते, सोते, जगते, हँसते सुख पाते हो।
जग से दूर स्वार्थ-साधन ही सतत तुम्हारा यश है।
सोचो तुम्हीं, कौन अग - जग में तुम-सा स्वार्थ विवश है ?

पैदा कर जिस देशजाति ने तुमको पाला-पोसा।
किए हुए है वह निज-हित का तुमसे बड़ा भरोसा।
उससे होना उऋण प्रथम है सत्कर्तव्य तुम्हारा।
फिर दे सकते हो वसुधा को शेष स्वजीवन सारा।।

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