Insaf ki Dagar Pe

इन्साफ़ की डगर पे
- कवि प्रदीप (Kavi Pradeep)

इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

दुनिया के रंज सहना और कुछ न मुँह से कहना
सच्चाइयों के बल पे आगे को बढ़ते रहना
रख दोगे एक दिन तुम संसार को बदल के
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

अपने हों या पराए सबके लिये हो न्याय
देखो कदम तुम्हारा हरगिज़ न डगमगाए
रस्ते बड़े कठिन हैं चलना सम्भल-सम्भल के
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

इन्सानियत के सर पर इज़्ज़त का ताज रखना
तन मन भी भेंट देकर भारत की लाज रखना
जीवन नया मिलेगा अंतिम चिता में जल के,
इन्साफ़ की डगर पे, बच्चों दिखाओ चल के
ये देश है तुम्हारा, नेता तुम्हीं हो कल के

Category: hindi-poems hindi-poems-for-kids bal-kavita

Comments

  • rossie sharma
    29 Apr 13
    this poem sends msg to every youth. thanks to kavi pradeep
  • Kanika
    04 Aug 10
    जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला!!
    हरिवंशराय बच्चन

    जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
    कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
    जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

    जिस दिन मेरी चेतना जगी मैंने देखा
    मैं खड़ा हुआ हूँ इस दुनिया के मेले में,
    हर एक यहाँ पर एक भुलाने में भूला
    हर एक लगा है अपनी अपनी दे-ले में
    कुछ देर रहा हक्का-बक्का, भौचक्का-सा,
    आ गया कहाँ, क्या करूँ यहाँ, जाऊँ किस जा?
    फिर एक तरफ से आया ही तो धक्का-सा
    मैंने भी बहना शुरू किया उस रेले में,
    क्या बाहर की ठेला-पेली ही कुछ कम थी,
    जो भीतर भी भावों का ऊहापोह मचा,
    जो किया, उसी को करने की मजबूरी थी,
    जो कहा, वही मन के अंदर से उबल चला,
    जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
    कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
    जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

    मेला जितना भड़कीला रंग-रंगीला था,
    मानस के अन्दर उतनी ही कमज़ोरी थी,
    जितना ज़्यादा संचित करने की ख़्वाहिश थी,
    उतनी ही छोटी अपने कर की झोरी थी,
    जितनी ही बिरमे रहने की थी अभिलाषा,
    उतना ही रेले तेज ढकेले जाते थे,
    क्रय-विक्रय तो ठण्ढे दिल से हो सकता है,
    यह तो भागा-भागी की छीना-छोरी थी;
    अब मुझसे पूछा जाता है क्या बतलाऊँ
    क्या मान अकिंचन बिखराता पथ पर आया,
    वह कौन रतन अनमोल मिला ऐसा मुझको,
    जिस पर अपना मन प्राण निछावर कर आया,
    यह थी तकदीरी बात मुझे गुण दोष न दो
    जिसको समझा था सोना, वह मिट्टी निकली,
    जिसको समझा था आँसू, वह मोती निकला।
    जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
    कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
    जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।

    मैं कितना ही भूलूँ, भटकूँ या भरमाऊँ,
    है एक कहीं मंज़िल जो मुझे बुलाती है,
    कितने ही मेरे पाँव पड़े ऊँचे-नीचे,
    प्रतिपल वह मेरे पास चली ही आती है,
    मुझ पर विधि का आभार बहुत-सी बातों का।
    पर मैं कृतज्ञ उसका इस पर सबसे ज़्यादा -
    नभ ओले बरसाए, धरती शोले उगले,
    अनवरत समय की चक्की चलती जाती है,
    मैं जहाँ खड़ा था कल उस थल पर आज नहीं,
    कल इसी जगह पर पाना मुझको मुश्किल है,
    ले मापदंड जिसको परिवर्तित कर देतीं
    केवल छूकर ही देश-काल की सीमाएँ
    जग दे मुझपर फैसला उसे जैसा भाए
    लेकिन मैं तो बेरोक सफ़र में जीवन के
    इस एक और पहलू से होकर निकल चला।

    जीवन की आपाधापी में कब वक़्त मिला
    कुछ देर कहीं पर बैठ कभी यह सोच सकूँ
    जो किया, कहा, माना उसमें क्या बुरा भला।
  • yogesh
    15 Aug 13
    it is good
  • FRUTY CULLEN
    08 Sep 10
    IT IS NICE
  • Anonymous
    06 Jan 11
    For ghazals and hindi poems, please visit http://nicehindipoems.blogspot.com/